आठ साल पहले, उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली एक गरीब, अनपढ़ और कोमल उम्र की लड़की ने मासूमियत से एक दयालु और मिलनसार सर्जन से कहा कि वह उसे दिखाए कि स्कूल कैसा दिखता है. और ये डॉक्टर कोई और नहीं, बल्कि अलीगढ़ के सिविल लाइन्स के रहने वाले जाने-माने समाजसेवी डॉ. मोहसिन रजा थे.
12 अगस्त 2016 के उस दिन को याद करते हुए डॉ. रजा कहते हैं कि उनकी आंखों में आंसू आ गए थे. वो बताते हैं, ‘‘मैं अपनी कार से उतर रहा था, जब वह लड़की ‘नाहिद’, जो मुश्किल से तीन साल की थी, ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा कि वह एक स्कूल देखना चाहती है. मैंने बच्ची से इस मुलाकात के बारे में बताने के लिए अपनी बेटी सुम्बुल को लखनऊ बुलाया.
तब उन्होंने उनसे झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को पढ़ाना शुरू करने को कहा. मैंने ब्लैकबोर्ड, कुर्सियां और मेजें खरीदीं और अगले ही दिन अपने घर में स्थापित पहले केंद्र में 12 बच्चों को शिक्षा देना शुरू कर दिया. अब यह सेंटर मेरे घर के बगल में चलाया जा रहा है. धीरे-धीरे मेरे 140 बच्चे हो गये. फिर, हमने कावारसी बाईपास रोड की एक झुग्गी बस्ती में दूसरा केंद्र स्थापित किया.’’आठ साल पहले, उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक झुग्गी बस्ती में रहने वाली एक गरीब, अनपढ़ और कोमल उम्र की लड़की ने मासूमियत से एक दयालु और मिलनसार सर्जन से कहा कि वह उसे दिखाए कि स्कूल कैसा दिखता है. और ये डॉक्टर कोई और नहीं, बल्कि अलीगढ़ के सिविल लाइन्स के रहने वाले जाने-माने समाजसेवी डॉ. मोहसिन रजा थे.
12 अगस्त 2016 के उस दिन को याद करते हुए डॉ. रजा कहते हैं कि उनकी आंखों में आंसू आ गए थे. वो बताते हैं, ‘‘मैं अपनी कार से उतर रहा था, जब वह लड़की ‘नाहिद’, जो मुश्किल से तीन साल की थी, ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा कि वह एक स्कूल देखना चाहती है. मैंने बच्ची से इस मुलाकात के बारे में बताने के लिए अपनी बेटी सुम्बुल को लखनऊ बुलाया.
तब उन्होंने उनसे झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को पढ़ाना शुरू करने को कहा. मैंने ब्लैकबोर्ड, कुर्सियां और मेजें खरीदीं और अगले ही दिन अपने घर में स्थापित पहले केंद्र में 12 बच्चों को शिक्षा देना शुरू कर दिया. अब यह सेंटर मेरे घर के बगल में चलाया जा रहा है. धीरे-धीरे मेरे 140 बच्चे हो गये. फिर, हमने कावारसी बाईपास रोड की एक झुग्गी बस्ती में दूसरा केंद्र स्थापित किया.’’
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