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प्रस्तावना

उम्मीद एजूकेषन एण्ड वेल्फेयर

एक पग- पाठषाला की ओर

हमारे देश में करोड़ों ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने आज तक कोई पाठशाला नहीं देखी और भविष्य में भी आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती कि ये बच्चे किसी पाठशाला के द्वार में प्रवेश कर पाएंगे। 21वीं शताब्दी में भी ये बच्चे नगर की घनी आबादियों की धूल भरी सड़कों और गलियों या कीचड़ भरे गंदे नालों के किनारे अपने आधे अधूरे कपड़ों में खेलते मिलते हैं या कूड़ा घरों के आसपास थैला लिए अपने काम का सामान बीनते हुए दिखाई देते हैं। कुछ बच्चे आस-पास के घरों में फर्श और शौचालयों की सफाई में लगे रहते हैं। विशेषकर कुछ बच्चियाँ अपनी कामकाजी माताओं के काम पर जाने के पश्चात अपने घरों पर रहकर अपने छोटे भाई बहनों की रखवाली करने पर विवश हैं।

अधबनी झुग्गी झोपड़ियों में निवास कर रहे इन बच्चों के पिता या तो दैनिक मजदूर हैं या रिक्शा चलाते हैं। कुछ का काम घूम-घूम कर कबाड़ और प्लास्टिक इकट्ठा करना है। परिवार के यह मुखिया अपनी रोजाना की कमाई का एक बड़ा भाग बीड़ी, सिगरेट और पान मसाले पर खर्च करके कुछ पैसों के साथ रात गये घर लौटते हैं। कुछ कच्ची शराब के नशे में घर पहुँचते हैं और आने के पश्चात गाली-गलौज और मारपीट का सिलसिला आरम्भ कर देते हैं।

इन बच्चों की माताएँ दिनभर आस-पास के घरों में घरेलू काम-काज निपटा कर और वहाँ से मिले हुए बच खुचे खानो के साथ जब सांझ गये घर लौटती हैं तो उन बच्चों को उनसे अधिक इंतजार उन खाने का होता है जो वह अपने साथ लाती हैं। माता-पिता दोनों को न तो पता होता है और न फिक्र कि उनके बच्चे दिन भर कहाँ रहे। सामान्यतः इन झुग्गी झोपड़ियों में पल रही बच्चियों का विवाह 12-13 वर्ष की आयु में कर दिया जाता है और 14 वर्ष की आयु तक वह पहुँचते-पहुँचते ही एक बच्चे की माँ बन जाती हैं और 20-21 वर्ष की आयु पार करते-करते स्वयं उनके पीछे 4-5 बच्चों की टोली खड़ी दिखाई देने लगती है। इन बच्चों में अधिकतर कुपोषण, रक्तहीनता व विभिन्न प्रकार के संक्रमण का शिकार हो चुके होते हैं।

इन परिवारों की दृष्टि में यही जीवनयापन का तरीका है। इससे आगे सोचने की न तो उनमें क्षमता है और न ही समय। उनका सारा संघर्ष केवल जीवित रहने के लिए है और यही उनकी सबसे बड़ी विवशता है। ऐसे परिवार के सदस्यों को यह समझाना कि वह अपने कमाऊ बच्चों को काम से अलग करके पाठशाला की ओर भेज दें, जहाँ कुछ अपने पास से खर्च करने की भी आवश्यकता होती है, एक बहुत कठिन कार्य है जिसके लिए सघन एवं चुनौतीपूर्ण प्रयास की आवश्यकता है।

कुछ वर्ष पूर्व अलीगढ़ के कुछ शिक्षित एवं जिम्मेदार लोगों ने इस स्थिति का अध्ययन करने के पश्चात मजदूर बस्तियों के इन बच्चों को इस नरकीय जीवन से निकालकर मुख्य धारा में लाने का प्रयास आरम्भ किया। जमीन पर फर्श बिछाकर 12 बच्चों के साथ आरम्भ किया गया यह प्रयास धीरे-धीरे लोगों की समझ में आया और इस समय अलीगढ़ में उम्मीद के 14 केन्द्र अलग-अलग क्षेत्र में स्थापित हो चुके हैं, जिनमें बच्चों की संख्या लगभग 900 है तथा एक लखनऊ में है। उम्मीद के केन्द्रो को दूसरे नगरों तक पहुँचाने का भी प्रयास चल रहा है।

उम्मीद के केन्द्रों में आने वाले बच्चों की आयु सीमा 4 से 14 वर्ष तक है जिनका केन्द्र में प्रवेश के समय शैक्षिक स्तर लगभग शून्य होता है परन्तु बौद्धिक स्तर अलग-अलग होता है। यह केन्द्र स्वयं में कोई विधिवत पाठशाला न होकर, पाठशाला तक पहुँचाने का माध्यम है। केन्द्र व्यवस्थापकों ने उन बच्चों के बौद्धिक स्तर के अनुसार उन्हें अक्षरों का ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ सामान्य पाठशालाओं में जाकर व्यवहारिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप 2019 में इन केन्द्रो के 450 बच्चे विभिन्न पाठशालाओं में क्षमतानुसार अपनी कक्षाओं तक पहुँच सके।

इन बच्चों के पाठशालाओं तक पहुँच जाने के पश्चात हमने उनके अभिभावकों से अनुरोध किया कि उनका बच्चा अब मजदूर न रहकर एक विद्यार्थी बन चुका है तो उसकी शिक्षा का खर्च उन्हें उठाना चाहिए। बहुत थोड़े से लोग इसके लिए तैयार हुए। कुछ ने अपना वादा पूरा किया परन्तु अधिकतर लोगों ने असमर्थता प्रकट कर दी। परिणामस्वरूप अधिकतर बच्चों की पढ़ाई का पूरा व्यय संस्था स्वयं कर रही है जिसके लिए समाज के बहुत से जिम्मेदार एवं संवेदनशील लोग अपना पूर्ण सहयोग प्रदान कर रहे हैं, जिसके लिए उम्मीद उनकी आभारी है। संस्था की ओर से इन विद्यार्थियों का नियमित रूप से मूल्यांकन किया जाता है और उसके परिणाम से अपने सभी शुभचिंतकों को समय-समय पर अवगत भी कराया जाता है।

उम्मीद की ओर से हम सभी सम्भ्रांत एवं संवेदनशील नागरिकों से अनुरोध करते हैं कि वह अपने क्षेत्र में बनी हुई झुग्गी झोपड़ियों में निवास कर रहे ऐसे बच्चों को चिन्हित करें जो शिक्षा ग्रहण करने योग्य हों और अपने खाली समय में से कुछ समय निकालकर इन बच्चों को दें। मोहल्ले का कोई भी खाली स्थान, पार्क या घर का आँगन ही इस कार्य के लिए काफी है। बच्चे चार भी हो सकते हैं और दस भी। इस प्रकार का केन्द्र चलाने के लिए न तो किसी बड़े भवन की आवश्यकता है और न ही बहुत धन की। यह केवल हमारी संवेदना एवं सकारात्मक सोच का विषय है। अगर किसी कारणवश आपके पास समयाभाव है तो आप हमें सुझाव तो दे ही सकते हैं, हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। उम्मीद के केन्द्र से पाठशाला तक पहुँच चुके किसी निर्धन बच्चे की फीस की जिम्मेदारी ले सकते हैं। थोड़ा समय और धन व्यय करके एक छोटे से स्थान पर स्वयं उम्मीद का एक केन्द्र आरम्भ कर सकते हैं। किसी भी प्रकार की तकनीकी जानकारी प्राप्त करने के लिए आप स्वतंत्र हैं। उम्मीद के किसी भी केन्द्र पर आपका स्वागत करके हम सबको प्रेरणा प्राप्त होगी।

सम्पर्क उम्मीद कार्यकर्ता

डॉ. मोहसिन रजा (वरिष्ठ सर्जन)

8126039175